Saturday, July 12, 2025

दूहा(दोहा) सोरठा छन्द विधान

काव्य रचना की पहली सीढ़ी(सोपान) है, दूहा और सोरठा।यहां मैं काव्य सृजन करने के इच्छुक नवाचारों के लिए कुछ महत्वपूर्ण टिप्स दे रहा हूँ, इससे वो भाई बन्धु जो काव्य बनाना सीखना चाहते हैं उनके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दे रहा हूँ और आशा करता हूँ कि यह जानकारी काव्य सृजन सीखने वालों के लिए मील का पत्थर साबित होगी।मैं अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी आपके उत्तम काव्य सृजन की कामना करता हूँ।
इसलिए आप पहले दोहे बनाने सीखें।
दोहे बनाने का विधान इस प्रकार से है।
दोहा में चार पद होते हैं जो इस प्रकार से है।

13 मात्रा का प्रथम पद
11 मात्रा का दूसरा
13 का तीसरा और11 मात्रा का चौथा पद
इस प्रकार
13,11
13,11
का एक दोहा होता है।
उदाहरण के लिए
प्रथम पद :– किरपा कीजै करनला
मात्रा ज्ञान:--1,12  2,2  1,1,1,2

दूसरा पद
सगती दीजै साथ
1,12,  2,2 2,1
तीसरा पद

अम्बा सरणों  आपरो
2,2   1,1,2   2,1,2
चौथा पद

आई  आवड़  नाथ
2,2   2,1,1   2,1

इन चारों को मिलाये।

किरपा कीजै करनला, सगती दीजै साथ।
अम्बा सरणों आपरो,आई आवड़ नाथ।।
ये पूर्ण दोहा हो गया।

आई सिंवरु आपनै, नित उठ सीस नवाय।
चरणों दीजै चाकरी,मेहाई महमाय।।

इसको इस प्रकार समझें

आई   सिंवरु   आपनै,
2,2    2,1,1   2,1,2

नित उठ सीस नवाय
1,1 1,1 2,1  1,2,1

चरणों   दीजै   चाकरी,
1,1,2   2,2     2,1,2

मेहाई   महमाय
2,2,2   1,1,2,1

और फिर चारों को मिलाने पर ये दोहा बन जायेगा

आई सिंवरु आपनै, नित उठ सीस नवाय।
चरणों दीजै चाकरी,मेहाई महमाय।।

शुरुआत में आप उपरोक्त पोस्ट को देखकर हिंदी में भी लिख सकते हैं

अब कुछ शब्दों की मात्रा विधान व लघु गुरु  की जानकारी।

कंघा
गुरु गुरु

कही
क लघु
ही  गुरु

यानी बड़ी मात्रा वाला गुरु कहलाता है।
बिंदु वाला अक्षर गुरु कहलाता है।
आधा व् पूरा सयुंक्त अक्षर बिना मात्रा के भी गुरु कहलाता है।

दोहा
प्रथम चरण व् तीसरा चरण  13 मात्रा
दूसरा व् चौथा चरण 11 मात्रा
अंत गुरु लघु से होगा

लघु मात्रा को 1 से व् गुरु मात्रा को 2 से भी इंगित किया जाता है जैसे
कही
12
राजा
22
कहानी
122
राजा राम जानकी रानी
22  22   212   22
अंबे।   तू है  अंबिका
22     2 2  212
अंतस री आधार
211   2   22 1

कल्प भवानी मां मंदी

जग की पालन हार
11 2    211  2 1
दया राखजे  दास पे
12   212      21 2
आधा अक्षर रिपीट होगा तो ही गुरु होगा
क़्क़
ल्ल
ज्ज
लज्ज
कल्प भवानी मां मंदी

11 122 2 22
लाज
21
कल्ल
21

आधा पहले वाले को गुरु बनायेगा
चन्द्र बिंदी वाला लघु होगा
दोहा

प्रथम चरण व् तीसरा चरण  13 मात्रा
दूसरा व् चौथा चरण 11 मात्रा
अंत गुरु लघु से होगा

हँस
11
काज
लाज
हंस
21
थंब
साथ
हाथ
गल्ल
हल्ल
कब्ब
अब्ब
जहाज
भाज
हंस
मंस

कल्प
11

राम
21

मात्रा पर यदि ध्यान देने मात्र से काव्य की सफलता मानी जाती तो आज सूर का वो अप्रतिम वात्सल्य का कौन रसास्वादन करता।

केशव को हिन्दी साहित्य में "कठिन काव्य का प्रेत"कहा जाता है। लेकिन उनकी "रामचन्द्रिका "
को वो सफलता नहीं मिली जो तुलसी के "रामचरितमानस" को मिली।

स्पष्ट है काव्य शुद्धता से ज्यादा जन समुदाय के लिए हृदयांगम होना चाहिए।

(१) ह्रस्व स्वरों की मात्रा १ होती है जिसे लघु कहते हैं , जैसे - अ, इ, उ, ऋ
आधा अक्षर रिपीट होगा तो ही गुरु होगा
क़्क़
ल्ल
ज्ज
(४) व्यंजन में ह्रस्व इ , उ की मात्रा लगने पर उसका मात्राभार १ ही ~रहती~ रहता है

(२) दीर्घ स्वरों की मात्रा २ होती है जिसे गुरु कहते हैं,जैसे-आ, ई, ऊ, ए,ऐ,ओ,औ

(६) किसी भी वर्ण में अनुनासिक लगने से मात्राभार में कोई अन्तर नहीं पडता है,
.... जैसे - रँग=११ , चाँद=२१ , माँ=२ , आँगन=२११, गाँव=२१

(३) व्यंजनों की मात्रा १ होती है , जैसे -
.... क,ख,ग,घ / च,छ,ज,झ,ञ / ट,ठ,ड,ढ,ण / त,थ,द,ध,न / प,फ,ब,भ,म /
.... य,र,ल,व,श,ष,स,ह

(५) व्यंजन में दीर्घ स्वर आ,ई,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ की मात्रा लगने पर उसका मात्राभार
.... २ हो जाता है

(७) लघु वर्ण के ऊपर अनुस्वार लगने से उसका मात्राभार २ हो जाता है , जैसे -
.... रंग=२१ , अंक=२१ , कंचन=२११ ,घंटा=२२ , पतंगा=१२२

(८) गुरु वर्ण पर अनुस्वार लगने से उसके मात्राभार में कोई अन्तर नहीं पडता है,
.... जैसे - नहीं=१२ , भींच=२१ , छींक=२१ ,
.... कुछ विद्वान इसे अनुनासिक मानते हैं लेकिन मात्राभार यही मानते हैं,

(१०) संयुक्ताक्षर में ह्रस्व मात्रा लगने से उसका मात्राभार १ (लघु) ही रहता है ,
..... जैसे - प्रिया=१२ , क्रिया=१२ , द्रुम=११ ,च्युत=११, श्रुति=११

(१२) संयुक्ताक्षर से पहले वाले लघु वर्ण का मात्राभार २ (गुरु) हो जाता है ,
..... जैसे - नम्र=२१ , सत्य=२१ , विख्यात=२२१

(९) संयुक्ताक्षर का मात्राभार १ (लघु) होता है , जैसे - स्वर=११ , प्रभा=१२
.... श्रम=११ , च्यवन=१११

(१४) संयुक्ताक्षर सम्बन्धी नियम (१२) के कुछ अपवाद भी हैं , जिसका आधार  
..... पारंपरिक उच्चारण है , अशुद्ध उच्चारण नहीं !
..... जैसे- तुम्हें=१२ , तुम्हारा/तुम्हारी/तुम्हारे=१२२, जिन्हें=१२, जिन्होंने=१२२, 
..... कुम्हार=१२१, कन्हैया=१२२ , मल्हार=121
(११) संयुक्ताक्षर में दीर्घ मात्रा लगने से उसका मात्राभार २ (गुरु) हो जाता है ,
..... जैसे - भ्राता=२२ , श्याम=२१ , स्नेह=२१ ,स्त्री=२ , स्थान=२१ ,

हिन्दी छन्द रचना के लिए छन्द शास्त्र की मूल बातों से परिचित होना आवश्यक है 
छन्द वह नियम है जिसके अंतर्गत हम निश्चित मात्रा संख्या अथवा निश्चित मात्रा पुंज (गण) अथवा निश्चित वर्ण संख्या के आधार पर कोई काव्यात्मक रचना लिखते हैं 

छन्द की परिभाषा 
मात्रा, वर्ण की रचना, विराम गति का नियम और चरणान्त में समता जिस कविता में पाई जाते हैं उसे छन्द कहते हैं |

छन्द लिखने के लिए छन्द शास्त्री होना चाहिए, ऐसा आवश्यक नहीं है परन्तु छन्द की मूलभूत बातों तथा जिस छन्द विशेष में हम रचनारत हैं उसके मूल विधान से परिचित होना आवश्यक है 
आईये शुरू से शुरू करते हैं 

वर्ण
वर्ण दो प्रकार के होते हैं 
१- हस्व वर्ण 
२- दीर्घ वर्ण 

१- हस्व वर्ण - हस्व वर्ण को लघु मात्रिक माना जाता है और इसे मात्रा गणना में १ मात्रा गिना जाता है तथा इसका चिन्ह "|" है|   

२- दीर्घ वर्ण - दीर्घ वर्ण को घुरू मात्रिक माना जाता है और इसे मात्रा गणना में २ मात्रा गिना जाता है तथा इसका चिन्ह "S" है 

मात्रा-
वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं जो समय हस्व वर्ण के उच्चारण में लगता है उसे एक मात्रिक मानते हैं इसका मानक हम "क" व्यंजन को मान सकते हैं क उच्चारण करने में जितना समय लगता है उस उच्चारण समय को हस्व मानना चाहिए| जब किसी वर्ण के उच्चारण में हस्व वर्ण के उच्चारण से दो गुना समय लगता है तो उसे दीर्घ वर्ण मानते हैं तथा दो मात्रिक गिनाते हैं जैसे - "आ" २ मात्रिक है  

याद रखें - 
स्वर = अ - अः 
व्यंजन = क - ज्ञ 
अक्षर = व्यंजन + स्वर 
 
यदि हम स्वर तथा व्यंजन की मात्रा को जानें तो - 
अ इ उ स्वर एक मात्रिक होते हैं
क - ह व्यंजन एक मात्रिक होते हैं 
यदि क - ह तक किसी व्यंजन में इ, उ स्वर जुड जाये तो भी अक्षर १ मात्रिक ही रहते हैं
उदाहरण - कि कु १ मात्रिक हैं  
अर्ध चंद्रकार बिंदी युक्त स्वर अथवा व्यंजन १ मात्रिक माने जाते हैं 
कुछ शब्द देखें - 
कल - ११ 
कमल - १११ 
कपि - ११  
अचरज - ११११ 
अनवरत १११११ 

आ ई ऊ ए ऐ ओ औ अं अः स्वर दीर्घ मात्रिक हैं 
यदि क - ह तक किसी व्यंजन में आ ई ऊ ए ऐ ओ औ अं अः स्वर जुड जाये तो भी अक्षर २ मात्रिक ही रहते हैं
उदाहरण - ज व्यंजन में स्वर जुडने पर - जा जी जू जे जै जो जौ जं जः २ मात्रिक हैं  
अनुस्वार तथा विसर्ग युक्त स्वर तथा व्यंजन भी दीर्घ होते हैं  
कुछ शब्द देखें - 
का - २ 
काला - २२ 
बेचारा - २२२ 

अर्ध व्यंजन की मात्रा गणना
अर्ध व्यंजन को एक मात्रिक माना जाता है परन्तु यह स्वतंत्र लघु नहीं होता यदि अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर होता है तो उसके साथ जुड कर और दोनों मिल कर दीर्घ मात्रिक  हो जाते हैं
उदाहरण - सत्य सत् - १+१ = २ य१ अर्थात सत्य = २१
इस प्रकार कर्म - २१, हत्या - २२, मृत्यु २१, अनुचित्य - ११२१, 

यदि पूर्व का अक्षर दीर्घ मात्रिक है तो लघु की मात्रा लुप्त हो जाती है 
आत्मा - आत् / मा २२ 
महात्मा - म / हात् / मा १२२

जब अर्ध व्यंजन शब्द के प्रारम्भ में आता है तो भी यही नियम पालन होता है अर्थात अर्ध व्यंजन की मात्रा लुप्त हो जाती हैं | 
उदाहरण - स्नान - २१ 

एक ही शब्द में दोनों प्रकार देखें - धर्मात्मा - धर् / मात् / मा  २२२   

अपवाद - जहाँ अर्ध व्यंजन के पूर्व लघु मात्रिक अक्षर हो परन्तु उस पर अर्ध व्यंजन का भार न् पड़ रहा हो तो पूर्व का लघु मात्रिक वर्ण दीर्ग नहीं होता
उदाहरण - कन्हैया - १२२ में न् के पूर्व क है फिर भी यह दीर्घ नहीं होगा क्योकि उस पर न् का भार नहीं पड़ रहा है 

संयुक्ताक्षर जैसे = क्ष, त्र, ज्ञ द्ध द्व आदि दो व्यंजन के योग से बने होने के कारण दीर्घ मात्रिक हैं परन्तु मात्र गणना में खुद लघु हो कर अपने पहले के लघु व्यंजन को दीर्घ कर देते है अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी स्वयं लघु हो जाते हैं    
उदाहरण = पत्र= २१, वक्र = २१, यक्ष = २१, कक्ष - २१, यज्ञ = २१, शुद्ध =२१ क्रुद्ध =२१ 
गोत्र = २१, मूत्र = २१, 
यदि संयुक्ताक्षर से शब्द प्रारंभ हो तो संयुक्ताक्षर लघु हो जाते हैं 
उदाहरण = त्रिशूल = १२१, क्रमांक = १२१, क्षितिज = १२  
संयुक्ताक्षर जब दीर्घ स्वर युक्त होते हैं तो अपने पहले के व्यंजन को दीर्घ करते हुए स्वयं भी दीर्घ रहते हैं अथवा पहले का व्यंजन स्वयं दीर्घ हो तो भी दीर्घ स्वर युक्त संयुक्ताक्षर दीर्घ मात्रिक गिने जाते हैं  
उदाहरण = प्रज्ञा = २२  राजाज्ञा = २२२,  

क्योकि यह लेख मूलभूत जानकारी साझा करने के लिए लिखा गया है इसलिए यह मात्रा गणना विधान अति संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है 
अब कुछ शब्दों की मात्रा देखते हैं 

छन्द - २१ 
विधान - १२१ 
तथा - १२ 
संयोग - २२१ 
निर्माण - २२१
सूत्र - २१ 
समझना - १११२ 
सहायक - १२११ 
चरण - १११ 
अथवा - ११२ 
अमरत्व - ११२१

गण
छन्द विधान में गुरु तथा लघु के संयोग से गण का निर्माण होता है | यह गण संख्या में कुल आठ हैं| गण का सूत्र इन्हें समझने में सहायक है 
सूत्र - य मा ता रा ज भा न स ल गा  
     
सूत्र सारिणी 
 १ -य - यगण - यमाता - १२२ - हमारा, दवाई 
२ - मा - मगण - मातारा - २२२ - बादामी, बेचारा 
३ - ता - तगण - ताराज - २२१ - जापान, आधार 
४ - रा - रगण - राजभा - २१२ - आदमी, रोशनी 
५ - ज - जगण - जभान - १२१ - जहाज, मकान    
६ - भा - भगण - भानस - २११ - मानव, कातिल  
७ - न - नगण - नसल - १११ - कमल, नयन  
८ - स - सगण - सलगा - ११२ - सपना, चरखा 

चरण तथा पद
प्रत्येक छन्द में चरण अथवा पद अथवा चरण+पद होते हैं 
एक पंक्ति को पद तथा एक पद में यति/गति अर्थात विश्राम के आधार पर चरण होते हैं जैसे दोहा मात्रिक छन्द में देखें 

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर 
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर 

इस छन्द में दो पंक्ति अर्थात दो पद हैं |

बड़ा हुआ तो क्या हुआ / जैसे पेड़ खजूर
प्रत्येक पद में एक विश्राम है इसलिए प्रत्येक पद में दो चरण हैं 

बड़ा हुआ तो क्या हुआ / जैसे पेड़ खजूर 
पंथी को छाया नहीं / फल लागे अति दूर 
(कुल दो पद में कुल चार चरण हैं )

बड़ा हुआ तो क्या हुआ - प्रथम चरण 
जैसे पेड़ खजूर - द्वितीय चरण
पंथी को छाया नहीं - त्तृतीय चरण 
फल लागे अति दूर - चतुर्थ चरण

प्रथम तथा तृतीय चरण को विषम चरण कहते हैं 
द्वितीय तथा चतुर्थ चरण को सम चरण कहते हैं 

जिस छन्द के पंक्ति में विश्राम नहीं होता है उसमें चरण नहीं होते केवल पद होते हैं जैसे चौपाई छन्द में ४ पंक्ति अर्थात ४ पद होते हैं परन्तु पद को पढते समय पद के बीच में विश्राम नहीं लेते इसलिए इसके पदों में चरण नहीं होते 

छन्द के प्रकार 
मुख्यतः छन्द के दो प्रकार होते हैं 
१- वर्णिक छन्द 
२- मात्रिक छन्द

१ - वर्णिक छन्द - जैसा कि आपने जाना गण आठ प्रकार के होते हैं 
जब हम किसी गण को क्रम अनुसार रखते हैं तो एक वर्ण वृत्त का निर्माण होता है 
जैसे - रगण, रगण, रगण, रगण तो इसकी मात्रा होती है - २१२, २१२, २१२, २१२ 
इस मात्रा क्रम के अनुसार जब हम कोई काव्य रचना लिखते हैं तो उस रचना को वर्णिक छन्द कहा जायेगा 
उदाहरण - भुजंगप्रयात छन्द - का विधान देखें - यगण यगण यगण यगण अर्थात -
१२२ १२२ १२२ १२२ 

अरी व्यर्थ है व्यंजनों की लड़ाई 
हटा थाल तू क्यों इसे आप लाई 
वही पाक है जो बिना भूख आवे 
बता किन्तु तू ही उसे कौन खावे - (साकेत)

मात्रा गणना 
अरी व्य / र्थ है व्यं / जनों की / लड़ाई 
हटा था / ल तू क्यों / इसे आ / प लाई 
वही पा / क है जो / बिना भू / ख आवे 
बता किन् / तु तू ही / उसे कौ / न खावे 

(वर्णिक छन्द के कई भेद होते हैं )

२ मात्रिक छन्द - 
जिस छन्द में गण क्रम नहीं होता बल्कि वर्ण संख्या आधार पर पद तथा चरण में कुल मात्रा का योग ही समान रखा जाता है उसे मात्रिक छन्द कहते हैं 

उदाहरण - चौपाई छन्द - विधान - ४ पद, प्रत्येक पद में १६ मात्रा 
 
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर 
जय कपीस तिहुं लोक उजागर 
राम दूत अतुलित बल धामा 
अंजनि पुत्र पवन सुत नामा  

मात्रा गणना
ज१ य१ ह१ नु१ मा२ न१  ज्ञा२ न१  गु१ न१  सा२ ग१ र१  = १६ मात्रा
ज१ य१ क१ पी२ स१ ति१ हुं१ लो२ क१ उ१ जा२ ग१ र१   = १६ मात्रा
रा२ म१ दू२ त१ अ१ तु१ लि१ त१  ब१ ल१  धा२ मा२   = १६ मात्रा
अं२ ज१ नि१ पु२ त्र१ प१ व१ न१ सु१ त१ ना२ मा२     = १६ मात्रा
 
(१३) संयुक्ताक्षर के पहले वाले गुरु वर्ण के मात्राभार में कोई अन्तर नहीं पडता है,
..... जैसे - हास्य=२१ , आत्मा=२२ , सौम्या=२२ , शाश्वत=२११ , भास्कर=२११.

सही और सटीक दुहे।

ईसको पढ़कर आप सीख सकते है सा
दो तीन बार पढ़ेंगे तो समज जायेंगे सा
और कमी काढ़ने वालों की तो भरमार है
फिर सबसे जरूरी है।
उदाहरण के लिए ये दोहा देखें सा
वैण सगाई
प्रथम तो दुहे मे

प्रथम चरण मे13
दूसरे मे11
तीसरे मे13
और चोथे मे11
मात्राएँ होती है।

इसी तरह दूसरे मे ज और ज
प्रथम चरण मे

करणी करणी कीजिए,

प्रथम शब्द का पहला अक्षर क और अंतिम शब्द का पहला अक्षर क
ये वैण सगाई है।
हनुमान सिंह राठौड़ सवाईगढ़: करणी करणी कीजिए,जप नित मन सूं जाप।
डाढाली माँ डोकरी,सगळा हरै संताप।।

चौथे मे स और स
तीसरे में ड और ड
इसे वैण सगाई कहते है
प्रथम चरण की तरह तीसरे चरण का विधान है।यानि इसी तरह होगा
इसी तरह लघु दीर्घ मात्रा का भी ध्यान रखना जरूरी है।
प्रथम चरण के अंतिम शब्द मे दीर्घ लघु दीर्घ आना चाहिए।

उदाहरण

कीजिए ,
यानि की दीर्घ
जि लघु
ऐ दीर्घ
और डिंगल के दुवौ मे वैण सगाई जरूरी है
जैसे
ताप
ता दीर्घ
प लघु
जैसे
जाप
जा दीर्घ
प लघु
इसी तरह चौथे चरण मे होगा
दूसरे चरण के अंत मे दीर्घ व् लघु आना चाहिए
उसमें प्रथम चरण मे 11
दूसरे मे 13
तीसरे मे11
और चौथे मे 13 मात्राएँ होती है
और दूसरे व तीसरे का तुकान्त होना चाहिए
सौरठा इसके उल्टा होता है

जैसे
उनके लिए जो दोहा बनाने के इक्छुक है
और तुकान्त पहले व तीसरे चरण मे होता है
भगती रख मन भाव,सगती करियां साधना।
तनिक न आवै ताव,इण सेवग रै आजिया।।

फिलहाल आपको शॉर्ट कट ही बता रहा हूँ,
दोहा में चार पद होते हैं जो इस प्रकार से है।

13 मात्रा का प्रथम पद
11 मात्रा का दूसरा
13 का तीसरा और11 मात्रा का चौथा पद
इस प्रकार
13,11
13,11
का एक दोहा होता है।
दोहे बनाने का विधान इस प्रकार से है।
उदाहरण के लिए
प्रथम पद :– किरपा कीजै करनला
मात्रा ज्ञान:--1,12  2,2  1,1,1,2
[ तीसरा पद

अम्बा सरणों  आपरो
2,2   1,1,2   2,1,2

दूसरा पद

सगती दीजै साथ
1,12,  2,2 2,1
चौथा पद

आई  आवड़  नाथ
2,2   2,1,1   2,1
इसको इस प्रकार समझें

आई   सिंवरु   आपनै,
2,2    2,1,1   2,1,2

नित उठ सीस नवाय
1,1 1,1 2,1  1,2,1

चरणों   दीजै   चाकरी,
1,1,2   2,2     2,1,2

मेहाई   महमाय
2,2,2   1,1,2,1

और फिर चारों को मिलाने पर ये दोहा बन जायेगा

आई सिंवरु आपनै, नित उठ सीस नवाय।
चरणों दीजै चाकरी,मेहाई महमाय।।
सोरठा दूहे का उल्टा होता है।यानी

11,13
11,13
यह शुद्ध वेण सगाई युक्त दोहा है।

जैसे प्रथम चरण
आ और आ

दूसरा
न और न

तीसरा
च और च

चौथा

म और म
के मेल को वेण सगाई कहते हैं

आई सिंवरु आपनै, नित उठ सीस नवाय।
चरणों दीजै चाकरी,मेहाई महमाय।।
ये पूर्ण दोहा हो गया।
और तुकान्त मेल प्रथम और तृतीय चरण में होता है
इन चारों को मिलाये

किरपा कीजै करनला, सगती दीजै साथ।
अम्बा सरणों आपरो,आई आवड़ नाथ।।

या फिर तीनों लघु भी हो सकता है
दीर्घ मतलब आ,ई,ऊ ए, ऐ
इत्यादि
लघु मतलब अ, उ,इ
दूहे के प्रथम और चौथे चरण के अंत में

दीर्घ लघु दीर्घ आता है।

पोस्ट ठाकुर अजयसिंह राठौड़ ठिकाना सिकरोड़ी।मो.न.9928483906

Saturday, August 14, 2021

राव खेतसी कांधलोत

⚔🌞 *कटियो पण झुकियो नीं*🌞⚔

    *राव खेतसी कांधलोत*

✍🏻✒@अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी

आपणी इण मरुधरा रै मांय ऐक सूं ऐक बधती सूरवीर हुया है जिका इण धरा री रिख्या खातर आपरी काया होम दी पण किणी आक्रांता री अधीनता नीं कबूली अर आपरै जींवता थका किणी मुगले नै सोरा सांसा आपणी इण धरा माथै कब्जो नीं करण दियौ अर लड़ता थकां सुरगां सिधाया।पण इतिहास रै मांय ऐड़ा घणकरा सूरवीर हुया है जिणनै पूरो मान सम्मान नीं मिलियो जिको बण नै मिलणो चाइजै हो।
ऐड़ा ही ऐक सूरवीर राव खेतसी कांधलोत री ऐतिहासिक वात आपरै निजर करूँ।।

बीकानेर थापना मांय महती भूमिका निभावण हाला रावत कांधलजी जिका आपरै भाई जोधाजी रै ऐक बौल माथै जोधाणों छोड़'र आपरै भतीज कुंवर बीकाजी ने नूवो राज ढबाय बीकाणों बणायो उणी रावत कांधलजी रा पोतरा अर राव अड़कमलजी रा बेटा राव खेतसी कांधलोत।

बेंया तो खेतसी आपरै बाप दादा रै साथ रैय उणरी देख रेख मांय घणा जुद्ध लड्या पण सगळी जानकारीयां नीं मिलै(राव लूणकरण री मदत सारू नारनोल री लड़ाई,सांगा कछावा री मदत सारू सेना लेय'र गिया, जोधपुर रै राव गांगा री मदत सारू गिया)आद घटनावां मांय खेतसी री महती भूमिका रैयी।अबै आपां सागी बात माथै आवां।

*भटनेर री बात*

रावत कांधलजी आपरै भाई अर भतीजों नै सब रा न्यारा न्यारा ठिकाणा बांध'र दिया जठै रा बै लोग सुतन्त्र मालक हा।खेतसी रै अधिकार मांय साहवा,भादरा, भटटू, भटनेर आद परगना हा,
पण भटनेर रावत कांधलजी री वीरगति रै पाछै हाथ सूं जांतो रैयो जिणरो मलाल राव खेतसी नै घणो हो अर बै भटनेर पाछो लेवण री जुगत मांय लाग्या रेंवता कैे कद भगवती राजी हुवै अर कद भटनेर ढाबां।इणी बगत भगवती री किरपा हुवी अर भटनेर रा ऐक क़ानूगो री भटनेर रै किलेदार माथै किणी बात माथै बिगड़ गयी जणा बो बेराजी हुय'र खेतसी खनै आयौ अर कैयो के हुं थांनै भटनेर दिरवाय सकूँ हूँ।
जद खेतसी बोल्या कै आ ही तो म्हूँ चावूं।पछै आपरै काका पूर्णमल जी अर ठावका आदमी साथै लेय नै भटनेर ढाबण खातर व्हीर हुया इणी बगत ऐक सिंघणी मुंडे मांय खोपड़ी दबाये आड़ी निसरी जणा साथ रा सुगणियां कैयो कै रावजी गढ़ तो सझसी पण आपनै ज्यादा दिन नीं रैयसी जद खेतसी बोल्या कै ऐकर ढाबां तो सही पछै री पछै देखी ज्यासी अर होवणी है सो होसी।
उठीने क़ानूगो रात री बगत भटनेर किले मांय सूं दीवार परियां जेवड़ा(रस्सीयां) लटकाय दिन्या जिणसूं खेतसी आपरै आदमीयां साथै किले मांय जाय बड़िया अर रात रा ही हमलों करनै मारकाट मचाय भटनेर ढबाय लीन्ही(आ बात विक्रम संवत 1581 री हुवणी चाइजै)अर घणा साल तणी भटनेर रा स्वामी रिया अर आपरौ राजपाट चलावता रैया।
विक्रम संवत 1591 मांय काबुल रै नवाब कामरान भटनेर लेवण री तेवड़ी।
अर भोत बड़ी अर बिकराल फौज लेय'र भटनेर माथै चढ़ आयौ।
कामरान री फ़ौज घणी बडी अर डरावणी ही जिका घणकरा काला भूत ज्यूँ हा, कइयों री आंख्या लाल लाल अर कइयों री भूरी।रात दिन दारू माय कचूच रेवणीया बड़ा बड़ा कानां र कुकर्मी जिण मांय कई तगड़ा निशानची अर कई कसाई हा इण तरां री घणी बिकराल लाखिणी फ़ौज लेय'र कामरान सतलज पार करनै भटनेर माथै चढ़ आयौ
घेरो घाल नै आपरौ आदमी भेज खेतसी नै कैवायो के हार माननै कामरान री बादशाहत कबूल कर गढ़ री कुंच्या उणने सुंप दे।आ सुणतां ई खेतसी घणा रीसाणा हुया अर कामरान रै आदमी ने दकालता थकां कैयो के म्हुं विधर्मी री दासता नीं मानूं अर म्हारै जींवता थकां उणने भटनेर रै खनै ई नीं आवण दयूं जा जाय'नै थारै सुल्तान ने कैय दे राव सीहा रो वंशज अर रावत कांधलजी रो पोतरो खेतसी तुर्क रै आगै कदै ई नीं झुके लो।

कटणों बडणों कोड सूं,सूरां झुकै न सीस।
मारण दुसमी मोकळा,रजवठ भरियो रीस।।1।।

इला न देवै आपरी,कदै न सीस झुकाय।
मुगला आगै सूरमों,खेतल यूं कहलाय।।2।।(अजय)

बीठू सूजा बी आपरै पन्दरा सोलह छन्द दूवा मांय खेतसी री घणी बड़ाई करी है अर कामरान साथै जुद्ध रो बरणाव करयो है।

अगराण न हालई उवरि अम्भ,वाहू असोस जिम तेवि बम्भ।
जडलग्ग साहि खेतसी जगड़ि, वइरॉ वराह चडियउ विडगडि।।308

मुमरिया देय पाखी भमेय, आडाविय तम्बू उतरेय।
खेतसी साम्हा.... खान,परठिया साहि आलमि प्रधान।।163।।

वाताउ वत कहियउ विचार,डड देहि नमिय लइ ध्रम्म द्वार।
अरड़क्कमल्ल सम्भम अबीह, सांभलिऐ कथिने खेतसीह।।164।।

Thursday, August 12, 2021

वीरवर दुर्गादास राठौड़ जयन्ती पर सादर समर्पित

वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ की जयंती पर सत सत नमन।।

वीर शिरोमणि दुर्गादास जी राठौड़
को समर्पित कुछ दूहे।
ठा. अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी कृत

आसकरण घर आवियो,सुभट्ट वीर सुचंग।
कुळ री राखण कीरती,रांगड़ दुरगो रंग।1।

राठौड़ी कुळ राखियो, माझी दुरगो मान।
भालो भळ भळकावियो,सूरै राखण शान।2।

दड़बड़ घोड़ा दौड़ियां,जबरो लड़ियो जंग।
मार मुगलिया मोकळा,रांगड़ दुरगो रंग।3।

सांमी भगती साधना, रजवठ राखी रीत।
घुड़ले माथै गाबरू, नेम निभावण नीत।4।

रचयिता अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी

Friday, December 18, 2020

जयमल कल्ला राठौड़ पच्चीसी

🙏🌷जयमल कल्ला पच्चीसी🌷🙏
    🌷रणबंका राठौड़🌷
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जयमल जोधो जोरगो, चावो गढ़ चितौड़।
अमर नाम कर आपरौ,रणबंका राठौड़।।1।।

कल्लो भैरव कालियो,हुवै न जिणसूं होड़।
कांधै काको कमधजो, रणबंको राठौड़।।2।।

जुद्ध में कटगी जांघड़ी,करुं मैं किण विद झोड़।
कल्ला सूं जयमल कहै,रणबंको राठौड़।।3।।

बेठो कांधै बापजी,जबरो करस्यां झोड़।
चारभुजा धर चालिया, रणबंका राठौड़।।4।।

काका भतीजा ऐकला, मारया तुर्क मरोड़।
जयमल कल्ला जोरगा,रणबंका राठौड़।।5।।

बैठ भुजा पर भैरवी, करै घनेरा कोड।
खप्पर भरिया कालका,रणबंका राठौड़।।6।।

आय विराजै अम्बिका,ठमकत भाला ठौड़।
बैठ भुजा पै भगवती,रणबंका राठौड़।।7।।

तक तक मारै तुरकड़ा,तड़ तड़ गरदन तोड़।
दड़बड़ रण में दौड़ता, रणबंका राठौड़।।8।।

खड़गां रण में खड़कती, ठमकत ठावी ठौड़।
भुजा विराजी भगवती, रणबंका राठौड़।।9।।

भुजा चार धर भगवती, ठावी बैठी ठौड़।
कल्ला जयमल कमधजा,रणबंका राठौड़।।10।।

डम डम डमरू डमकता, फड़ फड़ घुड़ला पोड़।
कांधे जयमल कमधजो, रणबंका राठौड़।।11।।

खड़ खड़ खांडा खड़कता,दड़बड़ घोड़ा दौड़।
कांधे चढ़ियो कमधजो, रणबंका राठौड़।।12।।

तड़ तड़ पड़ता तुरकड़ा, भड़ भड़ फूटत भोड।
मारै घणाय मुगलिया,रणबंका राठौड़।।13।।

थर थर छूटत धूजणी, फड़ फड़ गोला फोड़।
सर सर सर सरणावतो,रणबंका राठौड़।।14।।

फर फर मूंछां फरकती, जबरो बणियो जोड़।
जयमल कल्ला जोरगा,रणबंका राठौड़।।15।।

भळ भळ भालो भळकतो,तड़कत छाती तोड़।
मुगल घणाई मारिया,रणबंका राठौड़।।16।।

हिण हिण घुड़ला हिणकता,दमकत जाता दौड़।
दळता अरिदल दोवड़ा,रणबंका राठौड़।।17।।

ढम ढम बाजत ढोलड़ा, तुरही ताबड़ तोड़।
कबंध लड़ता ऐकला, रणबंका राठौड़।।18।।

मुगल मारया मोकळा,चढ़ियो रंग चितौड़।
जयमल कल्ला जोरगा,रणबंका राठौड़।।19।।

तोपां तोड़ी ठावकी, कर कर कल्ला कोड।
कांधै जयमल कमधजो,रणबंको राठौड़।।20।।

करियो अचम्भो अकबर,हुवै न इणरी होड़।
चतुर्भुज बणै चोवटा, रणबंका राठौड़।।21।।

चलै कटारी चौगुनी,तड़ तड़ ताबड़तोड़।
धड़ तो लड़ता धाड़वी,रणबंका राठौड़।।22।।

परतख खप्पर पीवती, रणचण्डी रणछोड़।
मुंड माला गल मोहनी,रणबंका राठौड़।।23।।

आन बान अर शान में, हुवै न इणरी होड़।
रणभूमि में लड़ मरिया,रणबंका राठौड़।।24।।

रंग रुड़ा हा राजवी,कहै अजय कर जोड़।
अमर इला पर आपरी,रणबंका राठौड़।।25।।

@ठा.अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी कृत।।जयमल कल्ला राठौड़ पच्चीसी

Saturday, May 16, 2020

वंशावली गीत ठिकाना सिकरोड़ी।।

वंशावली अजयसिंह कांधल राठौड़ राजवंश ठिकाना सिकरोड़ी(भादरा)
: *कवि:- महाकवि भंवरदान 'मधुकर'*
*वंशावली:- कांधल राठौड *
*संख्या:- ३५० पिढी*
*छंद/गीत:- सुपंखरो*

ओम कार आद शक्ति शंशार वधार शीव
हरी नाभ कमल सें ब्रह्मा हुलास l
काछब विसवान मनु इक्षाकु विकुक्षी कहै
कुशत्स सुयोध पृथू विश्वरधि कास ll
*(१)*

चंद भुवनाश्व सावस्त कुलाश्व वृहद
धुधमार द्रढाश प्रमोद हर्माधीत l
कृशव रू सहताश राजाशव भवनाश
मानधाता पुरू कुश योवना हारीत ll
*(२)*

त्रस दसु अजरसु हरियसु अरूण ता
निबंध त्रिशूक हरिचंद रोहीतास l
हारीत चंप विजै सुदेव भरूक होय
वृक वाहू सगर असमंजस सु आस ll
*(३)*

अंशुमान दिलीप भगीरथ काकुत्स एसै
श्रुत रू नाभाग अमरीष वा सुताय l
सिन्धुदीप आयुताश श्रतुपर्ण सर्वकाम
सुदास रू सजो अस जस देव राय ll
*(४)*

सेदवीक विश्वसद खदमग दीर्घबाह
दिलीप रू रघू अज दुजो देव दीष l
रामरथ सिंधुसेन नभ केतु रतन रू
राष्ट योवनाश मानधाता अमरीष ll
*(५)*

धम रूक मनुकुश सोम सत्य देक सत्य
पूण्डरीक हरताम हरजस पांण l
बुध डडबाण आण जग खम्भ बाण बेटा
सरबाण नज महा रथ रूपबाण ll
*(६)*

चत्रबाण अजबाण कुभ रु सारंगबाण
कुशबाण केशीबाण मनशु महान l
परकुत्स परिक्षित सहस कपिल पुणां
कलिंग रू मदियार चकन्द कहान ll
*(८)*

धीरधज अवशेस अग्रसेन सूरसेन
वीरसेन अम्बसेन मदसेन वेर l
परसेन आन मद मग मन नर्मसेन
वीर केईसेन ब्रह्मसेन हू वधेर ll
*(९)*

रूप संमद रवी शीव वहूवना धरजदेव
अम्ब हरमंद राम सोम जो समंद l
जगसमंद वीर नर वीरसण नूरसम
सिणसंमद कलसम अकर अखंद ll
*(१०)*

सर सम महासम पदमसम रतनसम
रायसम वीरसम सुत सुरतपाल l
रूधपाल भरतचंद सुरज के ईन्द्र राज
अजपाल धर्म गंग भीव भेरूपाल ll
*(११)*

रियकपाल कवलपाल धून्धमार दलापाल
सम्पतपाल अजै पदमसद ग्यान दम l
महापदम पूत जग अकर सूरज पदम
अंत पदम सारंग रू वीर पदम अम ll
*(१२)*

पदमसेव पृथीसेव अकरसेव शीवसेव
पुर्णसेव बुनसेव दण्डसेव देख l
भगसेव बहासेव अरूणसेव पथप्राण
महापथ सामजीत अक्षैजीत ऐख ll
*(१३)*

विजैजीत अजैजीत रूघबाहू अजबजीत
शंकरजीत रोहजीत चंद्र ईन्द्रजीत l
सुरजजीत सोमजीत महीपथ रूप सुत
राम पथ तेजपथ अम्बपथ रीत ll
*(१४)*

रूपपथ जसमान दिज अयपाल दखां
मूलदेव महापथ वर सीधपथ l
अकपथ असपथ शिवपथ सोमपथ
धुमपथ नीमपथ गंग नरपथ ll
*(१५)*

असमान सद्रपथ इन्द्र चन्द्र रूद्रपथ
सुरकपथ दियापथ सुलकपथ सोय l
सकलपथ नगपथ बुधबल मनसेर
मानसोल चिलभ्रम धर्मधज मोय ll
*(१६)*

गलहीर राजधर्म धूड़धज ताह गणां
बिंदबल जयसमंद नरसमंद नाम l
अम्बरीख अस्तबाण चाकै तरवत तंग
रोहितास जंग जय अंगबाण जाम ll
*(१७)*

अजबाण सतभ्रम पुण्डरीक बुध अखै
दहजंग परिछन रीम वीरसेण l
सुभानु के नवखत उछिन पंख जोगियत
अवसाय अंगराय प्रण सुत ऐण ll
*(१८)*

साईपथ बिमीधव अतंरण मनुदेव
बिसीघव हरभज डयड़ बकसंत l
बाहूक को कहोचंद माया रायचंद बणै
भागचंद दीपचंद सुभास भनंत ll
*(१९)*

रूपचंद पृथीचंद श्रीचंद ईन्द्रचंद
कुलचंद अजै बल चंद नभ काय l
बंबचंद अगरचंद बुधचंद उदैचंद
शंशारचंद हरचंद जगदीस जाय ll
*(२०)*

बैणचंद बिरम रथ दुडवाय कर्णराय
तुगथाल भरत श्रीपुन्ज धर्मवम्ब l
धज कमधज रतन किसन का कलवृक्ष
सदवक्ष सूरवक्ष उदय अवलम्ब ll
*(२१)*

विजयचंद जयचंद अभय प्रतापचंद
पोईसेन वरदाई सेतराम पाय l
राव सिंहा आस्थान धुहड़ के रायपाल
कानपाल जालन के छाडन कहाय ll
*(२२)*

तीडा के सलखा अरु वीरम के चुण्डा तवां
राव रिड़माल पूत कांधल रिझाय l
सिकरोड़ी धणी अजै बंशावली लिखी सोय सुपक्षरो गीत कवी भमर सुणाय ll
*(२३)*

कांधल अरड़कमल खेतसी के सांईदास
गुणी सुत खंगारसी सिकरोड़ी गाम l
गोकलसी केशोदास दुरजनसी ईन्द्र दखां
नंद रतनेस ताको मुणसिंह नाम ll
*(२४)*

ताकै सुत सवाईसिह उनकै हुकम तवां
भणां खंगसिह ठाकुर ताकै भीमराज l
भीभ कै विजय लूण दोलत अजय भणां
अजय के अभेमन्यू अर्जुन सुआज ll
*(२५)*

तीन सो पचास पिढी कांधलोत बंश तिका
जपत भमरदान माड़वै जेसान l
मानवीय भूल कोय होय कवी मधुकर
माफ किजो गुणी जन आप हो महान ll
*(२६)*

*-महाकवि भंवरदान 'मधुकर' कृत कांधल राठौड वंशावली*
*संपर्क:- 9414761361*

Saturday, August 31, 2019

महाकवि पृथ्वीराज राठौड़

संवेदनाओं के पर्याय महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ -गिरधरदान रतनू दासोड़ी
आज राजस्थान और राजस्थानी जिन महान साहित्यकारों पर गौरव और गर्व करती है उनमेंसे अग्रपंक्ति का एक नाम हैं पृथ्वीराजजी राठौड़ ।
बीकानेर की साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर के धोरी और धुरी थे पृथ्वीराजजी राठौड़।इसलिए तो महाकवि उदयराजजी उज्ज्वल लिखतें हैं-
नारायण नै नित्त,
वाल्ही पीथल री धरा।
सुरसत लिछमी सत्थ,
ऐथ सदा वासो उदय।।

पृथ्वीराजजी राठौड़ का जन्म बीकानेर के राव कल्याणमलजी की पत्नी तथा  गिररी-सुमेल युद्ध के महानायकों में से एक पाली के शूरवीर शासक अखेराजजी सोनगरा की पुत्री भगतांदे की कुक्षी से हुआ था।
पृथ्वीराजजी ने अपनी प्रखरता,मानवीय संवेदनाओं,प्रज्ञा और प्रभा के  बूते जो मान पाया वो आज भी अखंडित और गौरव से मंडित है।
पृथ्वीराजजी राष्ट्रीयता के संवाहक,जातिय गौरव के संरक्षक ,स्वाभिमान के प्रतीक,स्वधर्म प्रेमी ,भक्त हृदय और निश्छल़ व्यक्तित्व के  धनी  थे।
किन्हीं तत्कालीन कवि ने लिखा है कि कंठ में सरस्वती, मुखाकृति पर नूर,पिंड में पौरष,तथा हृदय में प्रमेश्वर की चतुष्टय का नाम है पृथ्वीराजजी राठौड़--

कंठ सरस्वती नूर मुख,
पिंड पौरस उर रांम।
तैं भंगि प्रथ कल्यांणतण,
चहूं विलबंण ठांम।।

भक्त व कवि के रूप में जो ख्याति पृथ्वीराजजी को मिली वो उनके समकालीन कमती अथवा अंगुलियों पर  गिनने लायक लोगों को ही मिल़ी। 'वेलि क्रिसन रुखमणी री' तो उनकी कालजयी कृति है जो इन्हें साहित्यिक शिखर पर कलश की भांति सुशोभित करती है।इनके समकालीन कवि दुरसाजी आढा ने तो इस कृति को उन्नीसवें पुराण तथा पांचवें वेद की संज्ञा से अभिहित किया है-

रुकमणि गुण लखण रूप गुण रचवण,
वेलि तास कुण करइ वखाण?
पांचमउ वेद भाखियउ पीथल,
पुणियउ उगणीसमउ पुराण।।

इसमें कोई संशय नहीं है कि पृथ्वीराजजी प्रभुभजन और दुश्मनों का दर्प दमन में समरूप से प्रावीण्य रखते थे।तभी तो कविश्रेष्ठ लखाजी बारहठ लिखतें हैं-

राजै राव राठौड़ प्रथीराज,
रूड़ै अगि रूड़ी वे रीत।
प्रीत जिसो सरस जगतपति,
पैसो तिसि खत्रीपण प्रीत।।
यही बात किसी अन्य कवि  ने कही है-

वीरां रो सिरमोड़ त्यों,
कवियां रो सिरमोड़।
भगतां रो सिरमोड़ तूं,
धिन पीथल राठौड़।।

साहित्यिक समीक्षकों ने इनके काव्य की मूल आत्मा इनके डिंगल गीतों में समाहित मानी है।तभी तो किसी कवि ने कहा है-

पीथल खित खत्रीध्रम पाल़ग,
गीता जेम तुहाल़ा गीत।
समकालीन काव्य साधकों ने पृथ्वीराजजी की संवेदनशीलता तथा साफल्य मंडित गिरा गरिमा के गौरवबिंदुओं को सहजता से अंकित किया ।किसी कवि ने लिखा है कि 'हे पृथवीराज!,तुम्हारी सर्प रूपी कृपाण ने शत्रुओं को जो दंश दाह दी उससे वे आह किए बिना नहीं रहे सके और जो इस दंशन से बच गए उनके बचाव का मंत्र अथवा कारण तुम्हारे इस काव्य में दृष्टिगोचर हो रहा है--
तो खग उरग कल्याणतण,
अरिहर डसणां आह।
अणडसिया रहिया अगै,
मंत्रस दूह़ां मांह।।
तो पंगो रंग कल्याणतण,
गयो ज डसण अगाह।
मिण फिर अरि डसिया नहीं,
अरथज दूहां मांह।।
इनके भक्तिमय डिंगल गीत भाव ,भाषा तथा काव्य सौष्ठव की दृष्टि से बेजोड़ है।
ये गीत ईश्वर आराधना में लीन पृथ्वीराजजी की प्रमेश्वर के प्रति समर्पण भाव के साथ ही अथाह विश्वास को भी प्रतिबिंबित करते हैं--

हरि हलवै जेम तेम हालीजै,
किसो धणी सूं जोर क्रपाल़।
मोल़ी दियौ दियौ छत्र माथै,
देसो सो लेवहिस दयाल़।।
(हे प्रभु!मैं तो आपकी इच्छानुसार चलता हूं क्योंकि मैं तो पूर्णतया आपके आधीन हूं।आपकी मर्जी हों तो मेरे सिर पर छत्र रखिए भलेही  मोल़ी!मुझे दोनों स्वीकार्य हैं।)
एक 'अठताला गीत' में तो पृथ्वीराजजी का भक्त और कवि दोनों रूप उद्घाटित हुआ है।राठौड़ लिखतें हैं-

कवि कवित्त सिंघासण करे।
चंमरत ढाल़ि चौअक्खरे।
प्रभु सांमल़ा व्रन सिर परे।
छत्रबंध छत्र धरे।
घंट सुर कवियण घरहरे।
आगल़ी नट छंद अवसरे।
ऊजल़े मोतिय अक्खरे।
भल गुणे चौक भरे।।
( हे प्रभु!आपके कवित्त का सिंहासन, चौक्खरा का चंवर ,छत्रबंध का छत्र
उज्ज्वल अक्षरों के मोतियों से गुंथित काव्यात्मक लहरियों की घंटनाद के साथ आपकी आराधना होती है।)
ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता की ओर इंगित करते हुए पृथ्वीराजजी लिखते हैं--

वांनी विन्है एकठा वादल़,
करुणाकर बिन कवण करै।
अंब तणै सिर झाल़ ऊबरै,
झाल़ तणै सिर अंब झरै।।
(भष्मी /अग्नि और बादल़ को एकसाथ प्रभु ही कर सकता है।यह इसकी ही शक्ति है कि ये चाहे तो पानी के सिर पर आग प्रज्ज्वलित कर देता है और चाहे तो अग्नि की ज्वालाओं के शिखर से नीर प्रवहित कर देता है)
इसलिए ही तो कवि 'महती महीयान' के रूप में ईश वंदना करते हुए लिखता है-

पग पाताल़ि पइट्ठ,
माथो ब्रह्मण्ड ले मिले।
दाणव अहवो दिट्ठ,
वांमण वसुदेराअउत।।

इसी क्रम में कवि लिखता है कि  मनुष्य जन्म लेकर अगर उसने प्रभुभक्ति में मन नहीं लगाया है तो मानो उसने नगर में रहकर भी लकड़ियां का विक्रय  कार्य ही किया है-

जे हरि मंदर जाय,
केसव ची न सुणी कथा।
नगरे काठी न्याय,
बेचे वसुदेरावउत।।

पृथ्वीराजजी भारतीय संस्कृति के उद्गाता थे।यही कारण है कि कवि लिखता है कि  गंगा में अंग प्रक्षालन और गीता का श्रवण  जिसने किया उसने ही सही मायने में मनुष्य जीवन को सार्थक बनाया है-

गंगा अरूं गीताह,
श्रवणां सुणी अर सांभल़ी।
जुग नर जीताह,
वेद कहै भागीरथी।।

पृथ्वीराजजी डिंगल़ छंद परंपरा के पारंगत कवि थे तो उतने डिंगल गीत सृजन में निष्णांत।डिंगल़ के क्लिष्ट छंद यथा अमृतध्वनि व पाड़गति जैसे छंदों की सहज छटा इनके काव्य में देखी जा सकती है।इन छंदों का सांगीतिक सौंदर्य अद्भुत है।भगवती योगमाया की नाट्य लीला तथा कन्हैया की रासलीला का उदाहरण भिन्न-भिन्न छंदों में आपके रसास्वादन हेतु--

व्रह -व्रह वाग्ड़िदिक व्रह -व्रह वाग्ड़िदिक,
व्रह तत तत तत तक्तार करं।
धप मप पप धम दौं दौं दौं दौं दौं,
विकट म्रदंग धुनि ध म स धरं।
किट किट धौंकटि धौं धौं धौं धौं ,
धिकटि कटि कटि धौं धौं गुण ताल़ गुणं।
सगति संभ रंभ नाटारंभ,
जुग डुग खेलत जोगणियं।।
^^^^
गिरधर अधर गोवरधन कर कर,
ब्रज नर नार जतन करैया।
अजर अमर नर अडर अलेफम,
कटि धर दसणि गै वंद करैया।
इंद फणंद  सिध सनिकादिक ,
ब्रम रुद्र सिव व्याल बलैया।
सकल़ प्राण प्रथीराज सुकवि कहै,
मृदंग बजत जत नचत कन्हैया।।

पृथ्वीराजजी जितने भक्त हृदय थे उतने ही प्रखर चिंतक भी थे।
उनके स्फुट काव्य में जगह-जगह नीति के नगीनों की जगमगाट प्रत्यक्ष देखी जा सकती है।लोक व्यवहार की जितनी स्पष्ट व पारदर्शी व्याख्या इनके काव्य में हुई है वो दूसरों के काव्य में कम ही देखने को मिलती है।
कवि कहता है कि विद्वता,समुद्र का जल आकाश की ऊंचाई ,उत्तरपथ तथा देवगति का कोई ओर-छोर नहीं है।इसी प्रकार तथाकथित साधुओं से बचने हेतु भी उन्होंने सिद्धों की स्पष्ट पहचान बताई है, तो यह भी कहा है कि सेवक, चतुर मनुष्य तथा चातक हमेशा उदास रहते हैं जबकि मूर्ख मनुष्य,गधा,घघू हमेशा प्रसन्नचित्त रहते हैं।

विद्या भलपण समंद-जल़,
ऊंच तणै नभ गाज।
उतर पंथ नै देव गत,
पार नहीं प्रिथीराज।।

नख रत्त चख रत्तियां,
हाड कड़क्कड़ देह।
पीथल कह कलियांण रो,
सिद्धां पारख ऐह।।

चाकर चकवो चतर नर,
तीनूं रहत उदास।
खर घूघू मूरख मिनख,
सदा सुखी प्रिथीदास।।

दिया शब्द की सार्थकता सिद्ध करते हुए कवि कहता है कि जिसने दिया उसने ही काजल को उज्ज्वल किया यानी सुयश प्राप्ति की-
अखर एक परिणाम दुइ ,
कहत प्रिथू कवि हेर।
ऊ घर दीया ऊ कर दीया,
कज्जल ऊजल़ फेर।।

कवि ने इस संसार को अरहट के घड़ों की संज्ञा दी है क्योंकि आवागमन का चक्र बना ही रहता है-

खिण वसती ऊजड़ करै,
खिण उजड़तइ वास।
यह जग अरहट की घड़ी,
देखि डरयउ प्रिथीदास।।

इससे ही बढ़कर यह बात है उल्लेख्य है कि  मनुष्यता और संवेदनाएं जितनी पृथ्वीराजजी के हृदय में तरंगित होती थीं उतनी उनके समकालीन कवियों में ईशरदासजी बारहठ , मेहाजी  बीठू ,केसोदासजी गाडण जैसे गिणती के  कवियों में ही देखने को  मिलती है।
जिन -जिन लोगों ने पृथ्वीराजजी पर लिखा  उनमेंसे अधिकतर का ध्यान उनकी महान कृति 'वेलि क्रिसन रुकमणी री' के रचना वैशिष्ट्य बताने की तरफ ही अधिक रहा।जबकि  कवि के कई गीत  तत्कालनीन समय के ज्ञात-अज्ञात उन सूरमाओं को समर्पित हैं। जिनके त्याग को उल्लेखित करने हेतु किसी अन्य कवि की कलम या तो चली ही नहीं अथवा चली भी तो नहीं के बराबर। विस्तार भय से कतिपय नाम उल्लेखित करना समीचीन रहेगा जैसे चारण महाशक्ति राजबाई,नरु कविया,रामा सांदू,जसा सोनगरा,दलपत राठौड़,जसा चारण,माधोदास दधवाड़िया,सहंसमल भाटी,भोपत चौहाण,पाहू भोमो,सेरखांन ,सेखो उदैसिंघोत आदि के गौरवपूर्ण कार्यों को  अपने डिंगल गीतों का वर्ण्य विषय बनाकर इन नायकों को अमर कर दिया।आज  इन नायकों का परिचय इतिहास की गर्द में समा चूका है लेकिन उनके मानवीय मूल्यों की रक्षार्थ किए गए कार्य   पृथ्वीराजजी के काव्य में अक्षुण्ण है--

गुण पूरा गुरु सुग्गरा,
सायर सूर सुभट्ट।
रामो रतनो खेतसी,
गाडो गांधी हट्ट।।

पृथ्वीराजजी की संवेदनशीलता को अपन इस एक उदाहरण से समझ सकते हैं।इनकी पहली शादी जैसलमेर के महारावल हरराजजी की बेटी लालांदे के साथ हुई थीं।दोनों में आदर्श दांपत्य प्रेम था।काल की गति विकराल है ।यह निर्दय भी होता है।कुयोग से लालांदे काल की चपेट में आ गई।कहा जाता है कि लालांदे के पार्थिव शरीर को जब अग्नि को समर्पित किया तब  ,  अग्नि की उठती  लपटें और उन लपटों में अपनी प्रियतमा को जलते देख पृथ्वीराजजी का कोमल हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने उस समय प्रतिज्ञा करली कि  मेरे देखते-देखते जिस अग्नि ने मेरी लालां को  जलाकर भस्म कर दिया है अस्तु अब उस पर  पक्का हुआ भोजन मैं नहीं  करूंगा!-

तो रांध्यो नह खावस्यां,
रै बासदी निसड्ड!
मो ऊभां तैं बाल़िया,
लालांदे रा हड्ड!!

काफी दिनों तक पृथ्वीराजजी ने भोजन नहीं किया।आखिर आत्मीयजनों ने समझाइस करके उक्त शपथ को त्याज्य करने हेतु मनाया तथा  लालांदे की अनुजा  चंपादे के साथ विवाह करवाया।
चंपादे भी अनद्य सुंदरी,विदुषी,शीलवान और संवेदनशील महिला थीं ।शीघ्र ही इन दोनों के बीच भी  प्रगाढ प्रेम पल्लवित हो गया।एक दिन पृथ्वीराजजी काच में अपनी मुखाकृति देख रहे थे कि  उनको अपनी भंवराल़ी मूंछों में एक श्वेत केश दिखाई  दे गया। जिसको उखाड़ने हेतु उन्होंने जैसे ही  हाथ आगे बढाया  था ही कि  चंपादे की दृष्टि उन पर पड़ गई ।कुछ स्त्री स्वभावगत और कुछ प्रेमवश चंपादे थोड़ी   मुस्करा पड़ी। फिर यह सोचकर मुंह  मोड़ लिया कि कहीं प्रिय की भावनाएं आहत न हो जाए?चंपादे को मुस्कराती और  मुड़ती  देखकर कवि हृदय पृथ्वीराजजी का हाथ यकायक रुक गया और बोल पड़े-

पीथल पल़ी टमंकियां,
बहुल़ी लग्गी खोड़!
मरवण मत गयंद ज्यूं,
ऊभी मुक्ख मरोड़!!

चंपादे का पति प्रेम व संवेदनशीलता जगी और सोचा कि गजब कर दिया!बालम को ठेस पहुंचाई!उनके हृदय में  भी  में शारदा का  निवास था, वो तुरंत बोली-

प्यारी कह पीथल सुणो,
धोल़ां दिस मत जोय।
नरां नाहरां डिगम्बरां
पक्कां ही रस होय!!

खेड़ज पक्का धोल़िया,
पंथज गग्घां पाव।
नरां तुरंगां वनफल़ां पक्कां पक्कां साव।।

पृथ्वीराजजी धीर -गंभीर प्रवृत्ति के कवि और मनुष्य थे।असाधारण में साधारण अर साधारण में असाधारण की तमाम विशेषताएं पृथ्वीराजजी के व्यक्तित्व में सहज देखी जा सकती है।
इनके पिता कल्याणमलजी का अधिकांश जीवन संघर्षों में व्यतीत हुआ।जब उनका देहांत हुआ तो कवि हृदय द्रवित हो गया।बिना किसी लागलपेट
के कवि की शब्द निर्झरिणी प्रवहित हुई--

सुख रास रमंतां पास सहेली,
दास खवास मोकल़ा दांम।
न लिया नांम पखै नारायण,
कलिया चल उठिया बेकांम।।1

खाटी सो राखी धर खोदै,
साथ न चाली हेक सिल़ी।
पवनज जाय पवन बिच पैठो,
माटी माटी मांह मिल़ी।।9

आजादी की अलख के आगीवाण महानायक महाराणा प्रताप 'पातल' के डगमगाते आत्मविश्वास को  अपने ओजस्वी अक्षरों  से अडिग पृथ्वीराजजी ने ही रखा था।उनके इस उद्घोष से पातल की दृढता प्रखर हो गई थीं कि -

पटकूं मूंछां पांण,कै पटकूं निज तन करद।
दीजै लिख दीवांण ,
इण महेली बात इक।।

इसी दोहे को पढ़कर ही प्रताप ने कहा था कि-
'तुरक कहासी मुख पतो',
यही नहीं अपने कई गीतों में पृथ्वीराजजी ने महाराणा के क्षत्रियवट को अक्षुण्ण रखने हेतु समय -समय पर सुभग संदेश संप्रेषित किए थे।उन्हीं उज्ज्वल अक्षरों से ही राणाजी को अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहने की प्रेरणा मिलती रही है।पृथ्वीराजजी ने अकबर की कुत्सित मानसिकता के शिकार हों चूके अन्य महिपतियों को संबोधित करते हुए लिखा है कि महाराणा अपना रजवट किसी भी सूरत में वहां जाकर नहीं बेच सकते जहां निकम्मे पुरुषों तथा निलज्ज स्त्रियों का जमघट लगा हुआ हो।वहां जाकर क्षत्रियत्व को कलंकित करके किसी लाभ की प्राप्ति करना हानि से भी बढ़कर है-

परपंच लाज दीठ नह व्यापण,
खोटे लाभ अलाभ खरौ।
रज बेचवा न आवो रांणो,
हाटे मीर हमीर हरौ।।

जैसा प्रताप का विराट व्यक्तित्व था उसी के अनुरूप पृथ्वीराजजी की उनके प्रति गौरवपूर्ण अभिव्यक्ति थीं।यही कारण रहा है कि किसी कवि ने इन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में समतुल्य माना है-

नर नाहर पातल भलो,
भल पीथल कविराज।
वो सूरां सिर सेहरो,
ओ कवियां सिरताज।।
पृथ्वीराजजी ने  वीर पुरुषों की वीरगति के समाचार सुनकर उन्हें जो श्रदांजलि दी वो अपने आप में अद्वितीय व अनुपमेय है।इसका सहज कारण है कि पृथ्वीराजजी भक्त ,कवि होने से पहले एक वीर पुरुष थे।अतः वीर पुरुष ही वीरता का हृदयग्राही मूल्याकंन कर सकता है।
वीर नरू कविया की वीरगति के समाचारों से उद्वेलित कवि के शब्द सुमनों की सौरभ आज भी इहलोक में विस्तीर्ण है-

जो लागै दूखै नहीं सजावो,
बीजां तजियां जूंझ बंग।
मौसे नरू तणै दिन मरणे,
अण लागां दूखियो अंग।।
(वीर पुरुष ही युद्ध भूमि में घाव खाकर भी पीड़ा को सहजता से सह जाते हैं।यही कारण है कि जब दूसरों ने यवनों से लड़ना छोड़ दिया ऐसे पराक्रमी नरू के यवनों के खिलाफ लड़ते हुए वीरगति की बात सुनकर मुझे असह्य आघात लगा है।)
किन्हीं सहंसमल भाटी की वीरता को अंकित करते हुए कवि लिखता है कि -'हे सहंसमल !तुमने साधारण परिवार से होते हुए भी जो वीरता प्रदर्शित की उससे तुमने उसी प्रकार श्रेष्ठता प्राप्त की है जिस प्रकार स्वर्ण जड़ित आभूषणों से सजी वैश्या के बनिस्बत साधारण कचकोलियां (काच की चूड़ियां)धारित कुलांगना करती है-

मोल़ा राज पेख मालावत,
भाटियां हुइयै खत्र भीर।
कीजै काच हुवो कुल़वती,
सोनो जे नायका सरीर।।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि पृथ्वीराजजी का काव्य संवेदनाओं से परिपुष्ट तथा मानवीय मूल्यों को परिभाषित करता है।शोधकर्ताओं से अपेक्षा की जाती है कि इनके डिंगल गीतों का व्यापक मूल्यांकन करते हुए इनके नायकों को यथोचित सम्मान दिलाने की दिशा में काम किया जाए।
आखिर मनीषी विद्वान डॉ.मनोहर शर्मा के शब्दों में समाहार करते हुए बात को विराम देता हूं-
पीथल पाल़्यो कवि- धरम,
दियो दिव्य संदेश।
आजादी री जोत थिर,
राखी आरज देश।।
काव्य-वेलि रोपी रुचिर,
फल़ लाग्या अणपार।
भारत-लक्ष्मी रो हुयो,
हरि हाथां उद्धार।।
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संदर्भ-
1वैचारिकी जनवरी-मार्च 1993
2वरदा अप्रेल-जून 1975
3लेखक का निजी संग्रह
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान, दासोड़ी ,कोलायत,बीकानेर 334302