Saturday, August 31, 2019

महाकवि पृथ्वीराज राठौड़

संवेदनाओं के पर्याय महाकवि पृथ्वीराज राठौड़ -गिरधरदान रतनू दासोड़ी
आज राजस्थान और राजस्थानी जिन महान साहित्यकारों पर गौरव और गर्व करती है उनमेंसे अग्रपंक्ति का एक नाम हैं पृथ्वीराजजी राठौड़ ।
बीकानेर की साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर के धोरी और धुरी थे पृथ्वीराजजी राठौड़।इसलिए तो महाकवि उदयराजजी उज्ज्वल लिखतें हैं-
नारायण नै नित्त,
वाल्ही पीथल री धरा।
सुरसत लिछमी सत्थ,
ऐथ सदा वासो उदय।।

पृथ्वीराजजी राठौड़ का जन्म बीकानेर के राव कल्याणमलजी की पत्नी तथा  गिररी-सुमेल युद्ध के महानायकों में से एक पाली के शूरवीर शासक अखेराजजी सोनगरा की पुत्री भगतांदे की कुक्षी से हुआ था।
पृथ्वीराजजी ने अपनी प्रखरता,मानवीय संवेदनाओं,प्रज्ञा और प्रभा के  बूते जो मान पाया वो आज भी अखंडित और गौरव से मंडित है।
पृथ्वीराजजी राष्ट्रीयता के संवाहक,जातिय गौरव के संरक्षक ,स्वाभिमान के प्रतीक,स्वधर्म प्रेमी ,भक्त हृदय और निश्छल़ व्यक्तित्व के  धनी  थे।
किन्हीं तत्कालीन कवि ने लिखा है कि कंठ में सरस्वती, मुखाकृति पर नूर,पिंड में पौरष,तथा हृदय में प्रमेश्वर की चतुष्टय का नाम है पृथ्वीराजजी राठौड़--

कंठ सरस्वती नूर मुख,
पिंड पौरस उर रांम।
तैं भंगि प्रथ कल्यांणतण,
चहूं विलबंण ठांम।।

भक्त व कवि के रूप में जो ख्याति पृथ्वीराजजी को मिली वो उनके समकालीन कमती अथवा अंगुलियों पर  गिनने लायक लोगों को ही मिल़ी। 'वेलि क्रिसन रुखमणी री' तो उनकी कालजयी कृति है जो इन्हें साहित्यिक शिखर पर कलश की भांति सुशोभित करती है।इनके समकालीन कवि दुरसाजी आढा ने तो इस कृति को उन्नीसवें पुराण तथा पांचवें वेद की संज्ञा से अभिहित किया है-

रुकमणि गुण लखण रूप गुण रचवण,
वेलि तास कुण करइ वखाण?
पांचमउ वेद भाखियउ पीथल,
पुणियउ उगणीसमउ पुराण।।

इसमें कोई संशय नहीं है कि पृथ्वीराजजी प्रभुभजन और दुश्मनों का दर्प दमन में समरूप से प्रावीण्य रखते थे।तभी तो कविश्रेष्ठ लखाजी बारहठ लिखतें हैं-

राजै राव राठौड़ प्रथीराज,
रूड़ै अगि रूड़ी वे रीत।
प्रीत जिसो सरस जगतपति,
पैसो तिसि खत्रीपण प्रीत।।
यही बात किसी अन्य कवि  ने कही है-

वीरां रो सिरमोड़ त्यों,
कवियां रो सिरमोड़।
भगतां रो सिरमोड़ तूं,
धिन पीथल राठौड़।।

साहित्यिक समीक्षकों ने इनके काव्य की मूल आत्मा इनके डिंगल गीतों में समाहित मानी है।तभी तो किसी कवि ने कहा है-

पीथल खित खत्रीध्रम पाल़ग,
गीता जेम तुहाल़ा गीत।
समकालीन काव्य साधकों ने पृथ्वीराजजी की संवेदनशीलता तथा साफल्य मंडित गिरा गरिमा के गौरवबिंदुओं को सहजता से अंकित किया ।किसी कवि ने लिखा है कि 'हे पृथवीराज!,तुम्हारी सर्प रूपी कृपाण ने शत्रुओं को जो दंश दाह दी उससे वे आह किए बिना नहीं रहे सके और जो इस दंशन से बच गए उनके बचाव का मंत्र अथवा कारण तुम्हारे इस काव्य में दृष्टिगोचर हो रहा है--
तो खग उरग कल्याणतण,
अरिहर डसणां आह।
अणडसिया रहिया अगै,
मंत्रस दूह़ां मांह।।
तो पंगो रंग कल्याणतण,
गयो ज डसण अगाह।
मिण फिर अरि डसिया नहीं,
अरथज दूहां मांह।।
इनके भक्तिमय डिंगल गीत भाव ,भाषा तथा काव्य सौष्ठव की दृष्टि से बेजोड़ है।
ये गीत ईश्वर आराधना में लीन पृथ्वीराजजी की प्रमेश्वर के प्रति समर्पण भाव के साथ ही अथाह विश्वास को भी प्रतिबिंबित करते हैं--

हरि हलवै जेम तेम हालीजै,
किसो धणी सूं जोर क्रपाल़।
मोल़ी दियौ दियौ छत्र माथै,
देसो सो लेवहिस दयाल़।।
(हे प्रभु!मैं तो आपकी इच्छानुसार चलता हूं क्योंकि मैं तो पूर्णतया आपके आधीन हूं।आपकी मर्जी हों तो मेरे सिर पर छत्र रखिए भलेही  मोल़ी!मुझे दोनों स्वीकार्य हैं।)
एक 'अठताला गीत' में तो पृथ्वीराजजी का भक्त और कवि दोनों रूप उद्घाटित हुआ है।राठौड़ लिखतें हैं-

कवि कवित्त सिंघासण करे।
चंमरत ढाल़ि चौअक्खरे।
प्रभु सांमल़ा व्रन सिर परे।
छत्रबंध छत्र धरे।
घंट सुर कवियण घरहरे।
आगल़ी नट छंद अवसरे।
ऊजल़े मोतिय अक्खरे।
भल गुणे चौक भरे।।
( हे प्रभु!आपके कवित्त का सिंहासन, चौक्खरा का चंवर ,छत्रबंध का छत्र
उज्ज्वल अक्षरों के मोतियों से गुंथित काव्यात्मक लहरियों की घंटनाद के साथ आपकी आराधना होती है।)
ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता की ओर इंगित करते हुए पृथ्वीराजजी लिखते हैं--

वांनी विन्है एकठा वादल़,
करुणाकर बिन कवण करै।
अंब तणै सिर झाल़ ऊबरै,
झाल़ तणै सिर अंब झरै।।
(भष्मी /अग्नि और बादल़ को एकसाथ प्रभु ही कर सकता है।यह इसकी ही शक्ति है कि ये चाहे तो पानी के सिर पर आग प्रज्ज्वलित कर देता है और चाहे तो अग्नि की ज्वालाओं के शिखर से नीर प्रवहित कर देता है)
इसलिए ही तो कवि 'महती महीयान' के रूप में ईश वंदना करते हुए लिखता है-

पग पाताल़ि पइट्ठ,
माथो ब्रह्मण्ड ले मिले।
दाणव अहवो दिट्ठ,
वांमण वसुदेराअउत।।

इसी क्रम में कवि लिखता है कि  मनुष्य जन्म लेकर अगर उसने प्रभुभक्ति में मन नहीं लगाया है तो मानो उसने नगर में रहकर भी लकड़ियां का विक्रय  कार्य ही किया है-

जे हरि मंदर जाय,
केसव ची न सुणी कथा।
नगरे काठी न्याय,
बेचे वसुदेरावउत।।

पृथ्वीराजजी भारतीय संस्कृति के उद्गाता थे।यही कारण है कि कवि लिखता है कि  गंगा में अंग प्रक्षालन और गीता का श्रवण  जिसने किया उसने ही सही मायने में मनुष्य जीवन को सार्थक बनाया है-

गंगा अरूं गीताह,
श्रवणां सुणी अर सांभल़ी।
जुग नर जीताह,
वेद कहै भागीरथी।।

पृथ्वीराजजी डिंगल़ छंद परंपरा के पारंगत कवि थे तो उतने डिंगल गीत सृजन में निष्णांत।डिंगल़ के क्लिष्ट छंद यथा अमृतध्वनि व पाड़गति जैसे छंदों की सहज छटा इनके काव्य में देखी जा सकती है।इन छंदों का सांगीतिक सौंदर्य अद्भुत है।भगवती योगमाया की नाट्य लीला तथा कन्हैया की रासलीला का उदाहरण भिन्न-भिन्न छंदों में आपके रसास्वादन हेतु--

व्रह -व्रह वाग्ड़िदिक व्रह -व्रह वाग्ड़िदिक,
व्रह तत तत तत तक्तार करं।
धप मप पप धम दौं दौं दौं दौं दौं,
विकट म्रदंग धुनि ध म स धरं।
किट किट धौंकटि धौं धौं धौं धौं ,
धिकटि कटि कटि धौं धौं गुण ताल़ गुणं।
सगति संभ रंभ नाटारंभ,
जुग डुग खेलत जोगणियं।।
^^^^
गिरधर अधर गोवरधन कर कर,
ब्रज नर नार जतन करैया।
अजर अमर नर अडर अलेफम,
कटि धर दसणि गै वंद करैया।
इंद फणंद  सिध सनिकादिक ,
ब्रम रुद्र सिव व्याल बलैया।
सकल़ प्राण प्रथीराज सुकवि कहै,
मृदंग बजत जत नचत कन्हैया।।

पृथ्वीराजजी जितने भक्त हृदय थे उतने ही प्रखर चिंतक भी थे।
उनके स्फुट काव्य में जगह-जगह नीति के नगीनों की जगमगाट प्रत्यक्ष देखी जा सकती है।लोक व्यवहार की जितनी स्पष्ट व पारदर्शी व्याख्या इनके काव्य में हुई है वो दूसरों के काव्य में कम ही देखने को मिलती है।
कवि कहता है कि विद्वता,समुद्र का जल आकाश की ऊंचाई ,उत्तरपथ तथा देवगति का कोई ओर-छोर नहीं है।इसी प्रकार तथाकथित साधुओं से बचने हेतु भी उन्होंने सिद्धों की स्पष्ट पहचान बताई है, तो यह भी कहा है कि सेवक, चतुर मनुष्य तथा चातक हमेशा उदास रहते हैं जबकि मूर्ख मनुष्य,गधा,घघू हमेशा प्रसन्नचित्त रहते हैं।

विद्या भलपण समंद-जल़,
ऊंच तणै नभ गाज।
उतर पंथ नै देव गत,
पार नहीं प्रिथीराज।।

नख रत्त चख रत्तियां,
हाड कड़क्कड़ देह।
पीथल कह कलियांण रो,
सिद्धां पारख ऐह।।

चाकर चकवो चतर नर,
तीनूं रहत उदास।
खर घूघू मूरख मिनख,
सदा सुखी प्रिथीदास।।

दिया शब्द की सार्थकता सिद्ध करते हुए कवि कहता है कि जिसने दिया उसने ही काजल को उज्ज्वल किया यानी सुयश प्राप्ति की-
अखर एक परिणाम दुइ ,
कहत प्रिथू कवि हेर।
ऊ घर दीया ऊ कर दीया,
कज्जल ऊजल़ फेर।।

कवि ने इस संसार को अरहट के घड़ों की संज्ञा दी है क्योंकि आवागमन का चक्र बना ही रहता है-

खिण वसती ऊजड़ करै,
खिण उजड़तइ वास।
यह जग अरहट की घड़ी,
देखि डरयउ प्रिथीदास।।

इससे ही बढ़कर यह बात है उल्लेख्य है कि  मनुष्यता और संवेदनाएं जितनी पृथ्वीराजजी के हृदय में तरंगित होती थीं उतनी उनके समकालीन कवियों में ईशरदासजी बारहठ , मेहाजी  बीठू ,केसोदासजी गाडण जैसे गिणती के  कवियों में ही देखने को  मिलती है।
जिन -जिन लोगों ने पृथ्वीराजजी पर लिखा  उनमेंसे अधिकतर का ध्यान उनकी महान कृति 'वेलि क्रिसन रुकमणी री' के रचना वैशिष्ट्य बताने की तरफ ही अधिक रहा।जबकि  कवि के कई गीत  तत्कालनीन समय के ज्ञात-अज्ञात उन सूरमाओं को समर्पित हैं। जिनके त्याग को उल्लेखित करने हेतु किसी अन्य कवि की कलम या तो चली ही नहीं अथवा चली भी तो नहीं के बराबर। विस्तार भय से कतिपय नाम उल्लेखित करना समीचीन रहेगा जैसे चारण महाशक्ति राजबाई,नरु कविया,रामा सांदू,जसा सोनगरा,दलपत राठौड़,जसा चारण,माधोदास दधवाड़िया,सहंसमल भाटी,भोपत चौहाण,पाहू भोमो,सेरखांन ,सेखो उदैसिंघोत आदि के गौरवपूर्ण कार्यों को  अपने डिंगल गीतों का वर्ण्य विषय बनाकर इन नायकों को अमर कर दिया।आज  इन नायकों का परिचय इतिहास की गर्द में समा चूका है लेकिन उनके मानवीय मूल्यों की रक्षार्थ किए गए कार्य   पृथ्वीराजजी के काव्य में अक्षुण्ण है--

गुण पूरा गुरु सुग्गरा,
सायर सूर सुभट्ट।
रामो रतनो खेतसी,
गाडो गांधी हट्ट।।

पृथ्वीराजजी की संवेदनशीलता को अपन इस एक उदाहरण से समझ सकते हैं।इनकी पहली शादी जैसलमेर के महारावल हरराजजी की बेटी लालांदे के साथ हुई थीं।दोनों में आदर्श दांपत्य प्रेम था।काल की गति विकराल है ।यह निर्दय भी होता है।कुयोग से लालांदे काल की चपेट में आ गई।कहा जाता है कि लालांदे के पार्थिव शरीर को जब अग्नि को समर्पित किया तब  ,  अग्नि की उठती  लपटें और उन लपटों में अपनी प्रियतमा को जलते देख पृथ्वीराजजी का कोमल हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने उस समय प्रतिज्ञा करली कि  मेरे देखते-देखते जिस अग्नि ने मेरी लालां को  जलाकर भस्म कर दिया है अस्तु अब उस पर  पक्का हुआ भोजन मैं नहीं  करूंगा!-

तो रांध्यो नह खावस्यां,
रै बासदी निसड्ड!
मो ऊभां तैं बाल़िया,
लालांदे रा हड्ड!!

काफी दिनों तक पृथ्वीराजजी ने भोजन नहीं किया।आखिर आत्मीयजनों ने समझाइस करके उक्त शपथ को त्याज्य करने हेतु मनाया तथा  लालांदे की अनुजा  चंपादे के साथ विवाह करवाया।
चंपादे भी अनद्य सुंदरी,विदुषी,शीलवान और संवेदनशील महिला थीं ।शीघ्र ही इन दोनों के बीच भी  प्रगाढ प्रेम पल्लवित हो गया।एक दिन पृथ्वीराजजी काच में अपनी मुखाकृति देख रहे थे कि  उनको अपनी भंवराल़ी मूंछों में एक श्वेत केश दिखाई  दे गया। जिसको उखाड़ने हेतु उन्होंने जैसे ही  हाथ आगे बढाया  था ही कि  चंपादे की दृष्टि उन पर पड़ गई ।कुछ स्त्री स्वभावगत और कुछ प्रेमवश चंपादे थोड़ी   मुस्करा पड़ी। फिर यह सोचकर मुंह  मोड़ लिया कि कहीं प्रिय की भावनाएं आहत न हो जाए?चंपादे को मुस्कराती और  मुड़ती  देखकर कवि हृदय पृथ्वीराजजी का हाथ यकायक रुक गया और बोल पड़े-

पीथल पल़ी टमंकियां,
बहुल़ी लग्गी खोड़!
मरवण मत गयंद ज्यूं,
ऊभी मुक्ख मरोड़!!

चंपादे का पति प्रेम व संवेदनशीलता जगी और सोचा कि गजब कर दिया!बालम को ठेस पहुंचाई!उनके हृदय में  भी  में शारदा का  निवास था, वो तुरंत बोली-

प्यारी कह पीथल सुणो,
धोल़ां दिस मत जोय।
नरां नाहरां डिगम्बरां
पक्कां ही रस होय!!

खेड़ज पक्का धोल़िया,
पंथज गग्घां पाव।
नरां तुरंगां वनफल़ां पक्कां पक्कां साव।।

पृथ्वीराजजी धीर -गंभीर प्रवृत्ति के कवि और मनुष्य थे।असाधारण में साधारण अर साधारण में असाधारण की तमाम विशेषताएं पृथ्वीराजजी के व्यक्तित्व में सहज देखी जा सकती है।
इनके पिता कल्याणमलजी का अधिकांश जीवन संघर्षों में व्यतीत हुआ।जब उनका देहांत हुआ तो कवि हृदय द्रवित हो गया।बिना किसी लागलपेट
के कवि की शब्द निर्झरिणी प्रवहित हुई--

सुख रास रमंतां पास सहेली,
दास खवास मोकल़ा दांम।
न लिया नांम पखै नारायण,
कलिया चल उठिया बेकांम।।1

खाटी सो राखी धर खोदै,
साथ न चाली हेक सिल़ी।
पवनज जाय पवन बिच पैठो,
माटी माटी मांह मिल़ी।।9

आजादी की अलख के आगीवाण महानायक महाराणा प्रताप 'पातल' के डगमगाते आत्मविश्वास को  अपने ओजस्वी अक्षरों  से अडिग पृथ्वीराजजी ने ही रखा था।उनके इस उद्घोष से पातल की दृढता प्रखर हो गई थीं कि -

पटकूं मूंछां पांण,कै पटकूं निज तन करद।
दीजै लिख दीवांण ,
इण महेली बात इक।।

इसी दोहे को पढ़कर ही प्रताप ने कहा था कि-
'तुरक कहासी मुख पतो',
यही नहीं अपने कई गीतों में पृथ्वीराजजी ने महाराणा के क्षत्रियवट को अक्षुण्ण रखने हेतु समय -समय पर सुभग संदेश संप्रेषित किए थे।उन्हीं उज्ज्वल अक्षरों से ही राणाजी को अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहने की प्रेरणा मिलती रही है।पृथ्वीराजजी ने अकबर की कुत्सित मानसिकता के शिकार हों चूके अन्य महिपतियों को संबोधित करते हुए लिखा है कि महाराणा अपना रजवट किसी भी सूरत में वहां जाकर नहीं बेच सकते जहां निकम्मे पुरुषों तथा निलज्ज स्त्रियों का जमघट लगा हुआ हो।वहां जाकर क्षत्रियत्व को कलंकित करके किसी लाभ की प्राप्ति करना हानि से भी बढ़कर है-

परपंच लाज दीठ नह व्यापण,
खोटे लाभ अलाभ खरौ।
रज बेचवा न आवो रांणो,
हाटे मीर हमीर हरौ।।

जैसा प्रताप का विराट व्यक्तित्व था उसी के अनुरूप पृथ्वीराजजी की उनके प्रति गौरवपूर्ण अभिव्यक्ति थीं।यही कारण रहा है कि किसी कवि ने इन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में समतुल्य माना है-

नर नाहर पातल भलो,
भल पीथल कविराज।
वो सूरां सिर सेहरो,
ओ कवियां सिरताज।।
पृथ्वीराजजी ने  वीर पुरुषों की वीरगति के समाचार सुनकर उन्हें जो श्रदांजलि दी वो अपने आप में अद्वितीय व अनुपमेय है।इसका सहज कारण है कि पृथ्वीराजजी भक्त ,कवि होने से पहले एक वीर पुरुष थे।अतः वीर पुरुष ही वीरता का हृदयग्राही मूल्याकंन कर सकता है।
वीर नरू कविया की वीरगति के समाचारों से उद्वेलित कवि के शब्द सुमनों की सौरभ आज भी इहलोक में विस्तीर्ण है-

जो लागै दूखै नहीं सजावो,
बीजां तजियां जूंझ बंग।
मौसे नरू तणै दिन मरणे,
अण लागां दूखियो अंग।।
(वीर पुरुष ही युद्ध भूमि में घाव खाकर भी पीड़ा को सहजता से सह जाते हैं।यही कारण है कि जब दूसरों ने यवनों से लड़ना छोड़ दिया ऐसे पराक्रमी नरू के यवनों के खिलाफ लड़ते हुए वीरगति की बात सुनकर मुझे असह्य आघात लगा है।)
किन्हीं सहंसमल भाटी की वीरता को अंकित करते हुए कवि लिखता है कि -'हे सहंसमल !तुमने साधारण परिवार से होते हुए भी जो वीरता प्रदर्शित की उससे तुमने उसी प्रकार श्रेष्ठता प्राप्त की है जिस प्रकार स्वर्ण जड़ित आभूषणों से सजी वैश्या के बनिस्बत साधारण कचकोलियां (काच की चूड़ियां)धारित कुलांगना करती है-

मोल़ा राज पेख मालावत,
भाटियां हुइयै खत्र भीर।
कीजै काच हुवो कुल़वती,
सोनो जे नायका सरीर।।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि पृथ्वीराजजी का काव्य संवेदनाओं से परिपुष्ट तथा मानवीय मूल्यों को परिभाषित करता है।शोधकर्ताओं से अपेक्षा की जाती है कि इनके डिंगल गीतों का व्यापक मूल्यांकन करते हुए इनके नायकों को यथोचित सम्मान दिलाने की दिशा में काम किया जाए।
आखिर मनीषी विद्वान डॉ.मनोहर शर्मा के शब्दों में समाहार करते हुए बात को विराम देता हूं-
पीथल पाल़्यो कवि- धरम,
दियो दिव्य संदेश।
आजादी री जोत थिर,
राखी आरज देश।।
काव्य-वेलि रोपी रुचिर,
फल़ लाग्या अणपार।
भारत-लक्ष्मी रो हुयो,
हरि हाथां उद्धार।।
..
संदर्भ-
1वैचारिकी जनवरी-मार्च 1993
2वरदा अप्रेल-जून 1975
3लेखक का निजी संग्रह
प्राचीन राजस्थानी साहित्य संग्रह संस्थान, दासोड़ी ,कोलायत,बीकानेर 334302

Thursday, August 1, 2019

साईंदासोत खंगारसिह कांधल राठौड़ री बात

*साईंदासोत खंगारसिह कांधल री बात*

@अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी

*आपणे बडेरा री घणकरी इतियासक अर जुनी बातां जिण माथै किणी कवि या इतियासकार री महती निजर नीं पड़ी अर लेखन मांय नीं आयी ऐड़ी भोत सी बातां अजै बी लोक मानस मांय कदै काऊ सुणन नै मिल ही ज्यावै आ बात म्हारी टाबर थकां सुणियोड़ी है अर म्हारै स्वर्गीय पिताश्री भीमसिंह जी राठौड़ नाजम साहब री डायरी मांय पढयोड़ी बी है पण बा डायरी घणा बखत पैलां कठै ई गुम होयगी या फेर कोई सयानों मिनख पढ़बा ने लेग्यो अर पाछी दी कोनी उणी डायरी सूं पढयोड़ी अर कीं सुनियोड़ी जिसी बी म्हारै याद है बा म्हे आज आप सूं साझा करूँ पण इण नै पुख्ता प्रमाणित करण रो म्हारै कनै कोई पुख्ता प्रमाण नीं है सा।*
*लेखन अर प्रस्तुति :- अजयसिंह राठौड़ सिकरोड़ी।।*

भादरा रै नजीक एक छोटीसी ढाणी जठै जाटां री गुवाड़ी दो च्यार घर जिका आपरी खेती बाड़ी करै अर डांगर ढोर पाळ नै आपरौ गुजारो चलावता ।
पण उणरै खेतां मांय बठै रा निरकुंश स्वामी बागोड़ा राजपूत अर उणारा कारिंदा अर भाई भतीजा रो घणो आंतक आपरी मनमर्जी चलावै अर खड़ी फसलां मांय आपरा ऊंट घोड़ा अर ढोर चराय नै किरसा रो घणो उजाड़ करै बिच्यारा किरसा फरियाद करै तो किणनै करै अठै तो बा ही बात लागू ही
"अंधेर नगरी चोपट राजा।
टक्के सेर भाजी टक्के सेर खाजा।।"
किणनै सुणावै अर कुण सुणे दोरा सोरा दिन काटता।इणी तरै धक्का पैल चालती रैयी उणी जाटां रै एक बेटा रै नुवीं नुवीं बीनणी आयोड़ी जिकी एक दिन आपरै खेत मांय घास फूस ल्यावण गयी अर खेत मांय पुगी तो कांई देखै कै खेत मांय तो खडी फसल मांय टोडिया(ऊंट के बच्चे)चरण लागरिया है ठाकर रा कारिंदा एक टिबड़ती माथै बैठ्या चरभर रमें आ देख बीनणती घणी रीसाणी हुवी नीं चरवाहा नै ओलमो दियौ जदै कारिंदा कैयो कै तन्ने ठाव कोनी ऐ राज रा टोडिया है ऐ तो इयाँ ई चरसी।बीनणती कैयो कै इयाँ किंया चरसी खेत म्हारौ है अर म्हे राज रो दाणों चुकावां अर यूं करतां करतां बात बढ़गी ठाकर रा कारिंदा बी घणा नकटाई सूं बोल्या कै ऐ टोडिया तो यूँही चरसी तूं कांई  करलेसी।
जाटणी बी पीछे सूं ढंग रै घर री बेटी ही अर घणी बेराजी अर रिसाणी हुय दरांती(हंसिया)सूं एक टोडिया री नाड बाढ दी जदै ठाकर रा कारिंदा बी घणा बेराजी हुया अर राज रै नशा मांय आंधा होयडा एक लुगाई सूं हाथापाई कर मार कुटाई करण लाग्या जणां लुगाई बापड़ी किणी तरां छुटाय'नै बस्ती कांनी भागी अर भागती रो ओढ़नियों सिर सूं उतरग्यो अर भागती भागती बावळी हुवेड़ी ज्यूँ भाग नै घरां आयगी इन्ने पोली माथै चौक मांय चौधरी लोग अर छोरा छंडा सगळा बैठ्या हुक्के रा हबीड बुलावै अर धुंवो उड़ावै पण बीनणी तो बापड़ी सुन्नी हुयेडी देवर जेठ सुसरा क्यूं नीं दीखै अर भागती भागती भूत भुंवाली खावती घरां जाय बड़गी बीनणती री आ हालत देख बूढ़ा बडेरा उणरे धणी नै कैयो कै छोरा मांयनै जाय'र देख कांई बात है कठै ई बीनणती मांय भूतणी तो नीं बड़गी हुवै किंया भागती आयी अर म्हासूं घूंघटो नीं करियौ अर ओढ़नियों धरती माथै घिसडतो गियो है।जणां उणरै धणी मांय जाय नै आपरी लुगाई नै बतलायी अर पुछ्यो कै कांई बात है आज इंया कैयां आयी है अर म्हारै काका बाबा रो बी ल्याझ नीं राखियो अर घूंघटो तो छोड़ ओढ़नियों बी गेलां घिसडतो आयौ है।जद बीनणती रिसाणी हुय बोली कै घूंघटो तो मरदां सूं काढयो ज्यावै अर थारै मांय तो म्हणे कोई मर्द दीखै कोनी।
जद धणी बोल्यो कै कांई बात है जिकी म्हानै सावळ तरियां बता जद लुगाई सारी बात बतायी जद धणी मुंडो लटकाय बारै आयौ अर सगळा काका बाबा भाई भतीजा नै कैयो कै आ बात है अबै करां तो कांई करां ऐ बागोड़ा तो आपां नै सोरा जीवण कोनी दे आये दिन क्यूं नै क्यूं उजाड़ करै अर साथै मारकुटाई अर लूटपाट करै।

"लूट मचावै मोकळी,देवै घणो ज दुःख।
बागोड़ बण बरोठिया,भरै जमारै भूख।।"

जद सगळा रलमिळ बिच्यार करियौ अर एक ही  राय किनी कै इणरो डोरो(पक्को इलाज) तो कांधलोत ई कर सकै है बाकी किणरी बी औकात नीं है इण सारू आपणे तो भेळा हुय नै सायै(साहवा साईंदासोत कांधलों का मूल ठिकाणा)चालो अर कांधलोतां रो सरणों लेवो।जद सगळा एक राय हुय साहवा भीर हुया।

"इणरो दे'सी ओलमो,सुत तो साईंदास।
कमधज सूरा कांधलां,अवस पूरसी आस।।

सगळा चालां साहवा,कमधां कन्ने खास।
अवस सुणेला आपणी, सुत बै साईंदास।।

"चाल्या रलमिळ चाव सूं,करणे अरजी खास।
साईंदास रा सूरमों,ऐकज थांसू आस।।"

अर सगळा भेळा होय साहवा व्हीर हुया।

रावत कांधलजी रा बेटा अरडकमल जी हा।अरडकमल जी रा बेटा राव खेतसी आपरै दम पर भटनेर माथै अधिकार जमायो अर घणा बरसा तांई राज करियौ पछै जद कामरान भटनेर माथै हमलों करियौ जद राव खेतसी आपरै साथ सहित उणरो घणे सुरापण सूं मुकाबलो करियौ पण मुगलां फ़ौज घणी ही जिणसूं सूं लड़तां थकां वीरगति नै व्हीर हुया जिणरो विस्तृत वर्णन सूजा बीठू बी आपरै छन्दा मांय घणो सजोरो करियौ है इणरे साथै ई घणकरा इतियासकारां बी राव खेतसी री बड़ाई करी है।खेतसी रा बेटा साईंदास जी हुया जिका साहवा रा स्वामी हा साईंदास जी बी बीकानेर री मदतसारू घणा जुद्ध लड़िया जिण मांय जैतसी री मदतसारू आपरै भाई भतीजो सहित कामरान सूं लड़िया इण लड़ाई मांय कामरान हार नै भागियो अर जीत राठौड़ो री हुवी।इण जुद्ध रो सजोरो बरणाव सूजा बीठू राव जैतसी रै छन्दा मांय करियौ है।इणी साईंदास जी रा बड़ा बेटा जयमल जी' दूजा कान्ह जी' तीजा ठाकर जी,चौथा खींवजी,पांचवां खंगार जी,छठा जालण जी अर सातवां लिछमण जी हा।जयमल जी बड़ा हा जिका साहवा रा स्वामी हुया अर बाकी सगळा भाई रलमिळ राज चलावता अर जयमल जी रो सेयोग करता।
एक दिन सगळा भाई बन्ध अर सभासद बैठ्या कीं मन्त्रणा करे हा उणी टेम जाटां आय फरियाद करनै अरज किनी कै थै बलशाली वीर जोद्धा रावत कांधलजी री वंश परम्परा सूं हो म्हारी मदत करो अर बागोड़ा सूं म्हारी रिख्या करो म्हे थांनै म्हारा मालक मानस्यां।

"सगळा आया साथ में,करणे करुण पुकार।
मदत करो थै मालकां,कर म्हां पे उपकार।।"

जद दरबार मांय बैठ्या स्याणा सुगनियां कैयो कै आज तो घरां बैठ्या आछा सुगण हुया खुद चाल नै भौम ढाबण रो न्यूतो आयौ जिको थै चुकज्यो मत।

"अवसर चौखो आवियो,आप चाल नै आज।
साय करै ली सारदा,मेहाई महाराज।।"

जद सगळा साईदासोतां एक मतो हुय नै आ जिमेदारी खंगारसिह नै भोलायी कै बागोड़ा नै थै जाय सलटावो अर उण भौम रा मालक बणो।

"रण में रमजै राजवी,कर मनड़ा में कोड।
कमधज वीर खंगारसी,रणबंका राठौड़।।"

जद खंगारसिह घणा राजी हुय कैयो कै जै आप सब री आ ई रजा है तो घणी चौखी बात है अर जाय भगवती श्री करणीजी रै देवरै सीस झुकाय आसीस लीवी पछै दादोसा महाराज रावत श्री कांधलजी रै थान(साहवा ढाब पर जहां रावत कांधलजी के साथ राणी देवड़ी जी सती हुए थे वहां पहले चबूतरे पर उनका थान बना हुआ था जहां अब भव्य मंदिर है) माथै जाय सती दादी राणी देवड़ी जी अर दादोसा कांधलजी रै माथो टेक जीत री अरदास करनै आपरौ साथ लेय भादरा कानी व्हीर हुया।

"राज ढबावण राजवी,तुरंत हुय तैयार।
सरपट चाल्या सूरमा,ले हाथां तलवार।।"

"भुजा विराज्या भगवती,भालै बावन बीर।
धजा धार पाबु धणी,रण मह करियौ सीर।।"

अर बागोड़ा नै जाय ललकारिया।भादरा सूं आथुण कानी दोनूं फ़ौज रो टकराव हुयो बतायजे।

"दड़ बड़ घुड़ला दौड़िया,ठावी ढाबण ठोड़।
कमधज वीर खंगारसी,रणबंको राठौड़।।"

बागोड़ा बी मद अर अंकार मांय बावळा होयडा सज धज नै सामां आयनै मुकाबलो करियौ पण साईंदासोत खंगारसिह रै आगै टिक नीं सकिया।

"मारण दुसमी मोकळा,भच भच फोड़त भोड़।
कमधज वीर खंगारसी,जबरो लड़ियो झोड़।।"

घणकरा खंगारसिह अर उणरै सुरवीरां रै हाथां सुरगां नै सिधाया अर कईयां रा अंग भंग हुयग्या अर कई जान बचाय भाग गिया जीत कांधलोतों री हुवी।खंगारसिह बागोड़ा री भौम दबाय उणरा स्वामी हुवा।
पछै खंगारसिह कांधलोत आपरौ नुंवो ठिकाणों सिकरोड़ी बसायो।जिणरो पुख्ता प्रमाण ओ है कै बहीभाट भी खंगारसिह ठिकाणा सिकरोड़ी लिखे अर इणरैे अलावा विद्वान अर बडेरा इतियासकार श्री रघुनाथ सिंह शेखावत काली पहाड़ी आपरी अमोल पुस्तक *क्षत्रिय राजवंश* मांय बी खंगारसिह ठिकाणा सिकरोड़ी लिख्यो है।बीजा कई इतियासकारां स्वर्गीय श्री फूलसिंह मेहरासर,स्वर्गीय कर्नल श्री जयसिंह जी ठेलासर, श्री कल्याण सिंह राठौड़ लीलकी आद लेखकां बी खंगारसिह ठिकाणा सिकरोड़ी लिख्यो है।सिकरोड़ी अजै बी कांधला री ही है बीकानेर महाराज सूरतसिंह रै बखत भादरा खालसा कर लीन्ही अर भादरा रै कांधलां नै बीजी जिग्या जागीर  देई पण सिकरोड़ी कांधलौतां आपरौ ठिकाणों नीं छोड्यो  अर दूसरी जिग्या जागीर नीं लेय सिकरोड़ी ई रैया।कई परिवार बीजी जिग्या जाय बसग्या पण अबै बी सिकरोड़ी रा खंगारसिहोत साईंदासोत कांधल कहावै है।
इण गांव रो नांव सिकरोड़ी रखण सारू बी कई किवदंतीयां चालै जकी फेर कदै साझा करस्यूँ।।

लेखन अर प्रस्तुति:-अजयसिंह राठौड़ ठिकाणा सिकरोड़ी।।
मोबाइल नम्बर 9928483906